गीत(CNF)
ऐ बसंत की मदिर हवाओं!
चुपके चुपके आना तुम
अभी सुलाया हृदय-पीर को
देखो, नहीं जगाना तुम
मेरे प्रियतम के घर जाना
कहना उनसे हाल मेरा
उनके कुसुमित मन-आंगन की
ख़ुशबू लेकर आना तुम।
नन्ही कलियां स्पंदन की
खिलती हैं, कुम्हलाती हैं
आती जाती सांसें तन में
साजन का गुण गाती हैं
सुरभित, प्रेम का चंदनवन
सुधियों के व्याल लिपटते हैं
पपिहा मन हूक उठाता है
गिन गिन कर पलछिन कटते हैं
नैनन-जल से लिक्खी पाती,
ये उन तक पहुंचाना तुम
उनके कुसुमित मन-आंगन की
ख़ुशबू लेकर आना तुम।
तुर्ष,मदभरी मंजरियों के
पास भी दो पल को रुकना
द्रुमदल के नव पल्लव के संग
मंथर गति से तुम झुकना
कुछ पीले सूखे पत्तों को
प्यार से जब सहलाओगी
मेरे अन्तस के भावों का
तरल परस भी पाओगी
इतना सा संस्पर्श मेरा
पी की देहरी बिखराना तुम
उनके कुसुमित मन-आंगन की
ख़ुशबू लेकर आना तुम।
ज्ञात नहीं है तुमको, उनका
प्रेम अनूठा है कितना
मुझको याद न करने का ही
वचन निभाया है अपना
पर मेरी ही तरह, पिया भी
राह तेरी तकते होंगे
वो भी तो अंसुअन की पाती
सिरहाने रखते होंगे
हूं सब भांति यहां आनन्दित
ये उनको समझाना तुम
उनके कुसुमित मन-आंगन की
ख़ुशबू लेकर आना तुम।
—— डाॅ. सुमन सुरभि
लखनऊ,
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