लखनऊ : उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के तारीखों का ऐलान हो चुका है। लेकिन, प्रदेश के चुनावी राजनीति से जुड़ा एक बहुत ही दिलचस्प तथ्य है, जिसके बारे में काफी लोग नहीं जानते हैं। यह है महाभारत काल में कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर से जुड़ी हुई। इस नाम से पश्चिमी यूपी में आज भी एक शहर है, जो विधानसभा क्षेत्र भी है- हस्तिनापुर। 1957 के चुनाव से इसका यह इतिहास रहा है कि उस विधानसभा के वोटरों ने जिसे जिताकर लखनऊ भेजा है, गद्दी उसी दल को मिली है। बीच में एक-दो बार थोड़ी गड़बड़ हुई है तो प्रदेश के लोगों ने भयंकर सियासी उठापठ की भी देखी है।
हस्तिनापुर में जीत, सरकार बनाने की गारंटी!
उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में हस्तिनापुर विधानसभा सीट से ऐसी प्रतिष्ठा जुड़ी है कि हर पार्टी की यही ख्वाहिश होती है कि उसका उम्मीदवार यहां से चुनाव जरूर जीत जाए। क्योंकि, इस विधानसभा सीट का इतिहास बताता है कि जिस भी दल को यहां जीत मिली, उसी ने लखनऊ से शासन किया है। यह परंपरा देश के दूसरे आम चुनावों या 1957 से चली आ रही है। जाहिर है कि पहले कांग्रेस की सरकारें होती थीं तो यहां से कांग्रेस के विधायक जीतते थे और उत्तर प्रदेश में उसी की सरकार बनती थी। इस सीट से जुड़े इस बेजोड़ इतिहास और एक ‘पौराणिक श्राप’ की आगे बात होगी।
2017 में बीजेपी के दिनेश खटिक को मिली जीत
नाम से ही स्पष्ट है कि हस्तिनापुर विधानसभा का इतिहास महाभारत काल से जुड़ा रहा है और इसे कुरु साम्राज्य या कौरवों के राजकाल की राजधानी माना जाता है। 1957 में यहां पर कांग्रेस के बिशंभर सिंह को जीत मिली और पार्टी के संपूर्णानंद मुख्यमंत्री बने। आज की तारीख में यहां मुसलमानों की आबादी काफी हो चुकी है, जिसके बाद हिंदुओ में गुज्जर, जाट और ठाकुरों की जनसंख्या है। इस समय बीजेपी के दिनेश खटिक यहां के विधायक हैं और 26 सितंबर, 2021 को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मंत्रिपरिषद विस्तार में उन्हें राज्यमंत्री बनाया गया है।
सपा-बसपा सरकारों में भी यह रहा हस्तिनापुर का ट्रेंड
2012 में जब अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी थी, तब सपा के प्रभुदयाल वाल्मीकि इस सीट से चुनाव जीते थे। उससे पांच साल पहले मायावती की अगुवाई में बसपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी थी और तब उनकी पार्टी के योगेश वर्मा यहां से एमएलए चुने गए थे। जब मुलायम सिंह यादव यूपी के मुख्यमंत्री थे, तब भी सपा के प्रभुदयाल वाल्मीकि ही हस्तिनापुर सीट से विधायक थे।
चौधरी चरण सिंह के साथ भी सच हुई बात
अगर अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित इस सीट के इतिहास को फिर से पलटकर देखें तो 1962 और 1967 में भी यहां कांग्रेस के उम्मीदवारों को जीत मिली थी। इस सीट से जीतने वाली पार्टी का ही यूपी में सरकार बनने की धारणा इसलिए और मजबूत हो जाती है, क्योंकि 1969 में यहां पर चौधरी चरण सिंह की बनाई भारतीय क्रांति दल के आशाराम इंदू को कामयाबी मिली थी। शुरू में तो कांग्रेस ने किसी तरह से सरकार बनाई, लेकिन 1970 में चरण सिंह को मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला।
बाकी मुख्यमंत्रियों के साथ भी यही कहानी सच हुई
1974 में हस्तिनापुर सीट से कांग्रेस के रेवती शरण मौर्या चुनाव जीते और हेमवती नंदन बहुगुणा की सरकार बनी। 1977 में रेवती शरण जनता पार्टी में चले गए और दोबारा चुनाव जीता। इस बार जनता पार्टी के राम नरेश यादव और फिर बाबू बनारसी दास बारी-बारी से सीएम बने। 1980 से 1989 तक हस्तिनापुर से कांग्रेस के झग्गर सिंह (1980) और हरशरण सिंह (1985) में चुनाव जीते और कांग्रेस के विश्वनाथ प्रताप सिंह और एनडी तिवारी को मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला
क्या है हस्तिनापुर को द्रौपदी का श्राप?
1989 में जनता दल के उम्मीदवार के रूप में झग्गड़ सिंह को हस्तिनापुर से चुनाव जीतने का मौका मिला और मुलायम सिंह यादव (तब जनता दल में थे) ने सरकार बनाई। टीओआई से हस्तिनापुर के एक निवासी दिनेश कुमार ने कहा है कि 1996 में निर्दलीय उम्मीदवार अतुल खटिक ने हस्तिनापुर सीट जीत ली, जिसका नतीजा ये हुआ कि प्रदेश ने काफी सियासी उथल-पुथल देखा। राष्ट्रपति शासन और चार-चार मुख्यमंत्री बदले। मायावती, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह और राम प्रकाश गुप्ता मुख्यमंत्री बने। लेकिन, जिस सीट पर जीत यूपी में सत्ता की गारंटी मानी जाती है, स्थानीय लोगों के मुताबिक वहां के लिए राजनीतिक दलों ने कुछ भी खास नहीं किया है। दिनेश के मुताबिक, ‘कुछ लोग कहते हैं कि हस्तिनापुर को द्रौपदी का श्राप है। यह कभी नहीं बढ़ेगा।’